Sunday, October 31, 2010

ये हैं छत्तीसगढ़ के 36 गढ़


तिहास के पन्नों पर यह तथ्य निर्विवाद भले ही ना हो लेकिन आम स्वीकार्यता यही है कि इस क्षेत्र में कभी 36 गढ़ हुआ करते थे इसीलिए इसका नाम छत्तीसगढ़ पड़ा। ज्यादातर इतिहासकारों का मत है, मध्ययुग में दक्षिण कोसल का नाम छत्तीसगढ़ हुआ।

मराठायुगीन अधिकांश पत्रों में छत्तीसगढ़ का नाम ‘जिलह’ या प्रांत के रूप में प्रयुक्त हुआ है। प्यारेलाल गुप्त, पं. लोचन प्रसाद पांडेय. डॉ. पीएल मिश्र ने गढ़ों के आधार पर छत्तीसगढ़ नाम को सार्थक एवं तथ्ययुक्त माना है।

छत्तीसगढ़ नामकरण से पहले यह कोसल (दक्षिण) के रूप में जाना-पहचाना जाता था। प्रयागदत्त शुक्ल के अनुसार मुगल काल में दक्षिण कोसल का नाम छत्तीसगढ़ हो गया था क्योंकि उस राज्य में 36 गढ़ थे। भौगोलिक रूप से यह क्षेत्र छत्तीसगढ़ के नाम से संभवत: उत्तर कलचुरिकाल या मराठा युग से अभिज्ञात हुआ क्योंकि जहांगीरनामा में राजा कल्याण शाह (रतनपुर) का नामोल्लेख आता है।

रायपुर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में 36 गढ़ों (किलों) की स्थिति बताई गई है। उसके अनुसार 36 किलों में से 18 गढ़ शिवनाथ नदी के उत्तर में अर्थात रतनपुर राज्यांतर्गत एवं 18 गढ़ शिवनाथ के उत्तर में अर्थात रायपुर राज्यांतर्गत आते थे।

ऐसा प्रतीत होता है कि मराठा प्रभावांर्तगत इस नामकरण का ज्यादा प्रचार हुआ होगा क्योंकि रायपुर और रतनपुर दोनों उसके नियंत्रण में थे और उन्होंने नागपुर के भोंसला साम्राज्य के अतंर्गत इसे संयुक्त कर ‘छत्तीसगढ़’ नाम स्वीकारा।

यद्यपि जीत से गढ़ों की संख्या बढ़ गई थी फिर भी छत्तीसगढ़ का नाम यथावत रहा। अंग्रेजों के शासनकाल में 1795 में मि. ब्लंट ने सरकारी तौर पर छत्तीसगढ़ के नामकरण का प्रस्ताव रखा था जिसे जेनकिंस ने ‘जमींदार्स ऑफ छत्तीसगढ़’ के रूप में प्रस्तुत किया और फिर यह नाम चल पड़ा। अंग्रेजों ने रायपुर को मुख्यालय बनाया।

उसके बाद रायपुर की महत्ता बढ़ती गई। रतनपुर की चर्चा धीरे-धीरे कम होने लगी। 14वीं शताब्दी के अंतिम दिनों में रतनपुर की कल्चुरी शाखा दो भागों में विभाजित हो घई थी। रतनपुर के अलावा रायपुर को गौण राजधानी का दर्जा मिला।

बाबू रेवाराम के अनुसार 15वीं सदी में रतनपुर के कलचुरि राजा जगन्नाथ सिंह के दो बेटे वीर सिंह देव और देव सिंह देव थे। छोटे बेटे देव सिंह देव को रायपुर राज्य दिया गया। दिल्ली में उथल-पुथल का असर छत्तीसगढ़ क्षेत्र में बहुत कम हुआ।

कुछेक प्रसंगों में इस इलाके का जिक्र मिलता है। मुगल-मराठों के पतन के बाद ब्रिटिशकाल में 1854 में जनरल लार्ड डलहौजी की नीति के अनुसार नागपुर राज्य ब्रिटिश सल्तनत में मिला लिया गया और कैप्टिन इलियट छत्तीसगढ़ के पहले अफसर मुकर्रर हुए।

तब छत्तीसगढ़ को जिले का दर्जा दिया गया था। बाद में कमिश्नरी बनाई गई जो फिर सीपी एंड बरार स्टेट का हिस्सा बना। आजादी के बाद छत्तीसगढ़ को मध्यप्रदेश में शामिल गया। अब छत्तीसगढ़ देश का अलग राज्य है।

डॉ. रमेंद्रनाथ मिश्र
(पूर्व अध्यक्ष इतिहास विभाग, रविवि)


रतनपुर के 18 गढ़

1) रतनपुर, 2) मारो 3) विजयपुर 4) खरोदगढ़ 5) नवागढ़ 6) सौंठीगढ़ 7) कोटागढ़ 8) ओखरगढ़ 9) पंडरभट्ठा 10) सेमरिया 11) चांपा 12) लाफा 13) छुरी 14 ) कैंदागढ़ 15) मातीन 16) अपरोरा 17) पेंड्रा 18 ) करकट्टी

रायपुर के 18 गढ़

1) रायपुर 2) पाटन, 3) सिमगा 4) सिंगारपुर 5) लवण 6) ओमेरा 7) दुर्ग 8) सरधा 9) सिरसा 10) मोहदी 11) खल्लारी 12) सिरपुर 13) फिंगेश्वर 14) राजिम 15) सिंघनगढ़ 16) सुवरमार 17) टेंगनागढ़ 18) अकलतरा

Saturday, October 30, 2010

छत्तीसगढ़ का सफर :आगे अब खुला आसमान है...

मात्र 10 साल की उम्र में छत्तीसगढ़ ने देश मे अपनी पहचान बना ली है। इतने कम समय में राज्य ने तरक्की की जिन बुलंदियों को छुआ है वह गौर करने लायक है। अविभाजित मध्यप्रदेश में उपेक्षा का दंश झेलने वाले छत्तीसगढ़ की तस्वीर आज बदल गई है।

राजधानी से लेकर गांव तक यह आभास हो रहा है कि अब अपना राज्य है। मंजिल यहीं थमी नहीं है। जिस गति और जिन योजनाओं के साथ छत्तीसगढ़ में काम हो रहा है, उससे कहा जा सकता है कि आगे खुला आसमान है..।

राज्य हर क्षेत्र में नित नई मंजिलें तय कर रहा है। ऐसे ही नहीं आगे बढ़ रहा है राज्य। हर वर्ग को ध्यान में रखते हुए भविष्य की रूपरेखा तय की गई। इन सबका परिणाम आज देखने को मिल रहा है जब राज्य को चौतरफा वाहवाही मिल रही है।

राज्य निर्माण के पहले तक जिस खनिज संपदा का दोहन दूसरे राज्यों के लिए होता था, उसका उपयोग यहां बढ़ गया। जिस बिजली से दूसरे क्षेत्र रोशन होते थे, उससे छत्तीसगढ़ के गांव रोशन होने लगे। राज्य निर्माण के साथ ही यहां की खूबियों पर ध्यान दिया गया। फिर छत्तीसगढ़ ने पीछे पलटकर नहीं देखा..।

इन सबका ही परिणाम है कि केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने वर्ष 2009-10 के जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े जारी किए तो छत्तीसगढ़ 11.49 प्रतिशत के साथ देश में पहले नंबर पर पहुंच गया। इसके मायने साफ हैं राज्य ने हर क्षेत्र में तरक्की की..।

छत्तीसगढ़ की सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है। गुजरात से लेकर महाराष्ट्र जैसे राज्य भी आज छत्तीसगढ़  की सार्वजनिक वितरण प्रणाली के मुरीद हो गए हैं। केंद्र सरकार ने राज्य के पीडीएस को मॉडल के तौर पर पूरे देश में लागू करने का निर्णय लिया है। योजना आयोग भी इसको पूरे देश में सबसे अच्छा मान रहा है। 

पहले इसी राज्य में राशन का चावल गेहूं बाजार में बिकने की बातें आम हुआ करती थीं, लेकिन अब इस तरह का सिस्टम काम कर रहा है कि कालाबाजारी की शिकायतें थम गई हैं। दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे गरीबों को सरकार ने अपनी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखा।

छत्तीसगढ़ देश का पावर हब बनने जा रहा है। एक तरह पूरे देश में इस समय 55 हजार मेगावाट बिजली की कमी है और दूसरी और छत्तीसगढ़ ने राज्य में 49 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए 63 कंपनियों से एमओयू किया हुआ है। जाहिर है आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ देश के कई राज्यों की बिजली जरूरतें पूरी करने वाला है।

सुनियोजित कार्ययोजना और राज्य की ताकत को पहचानकर आगे बढ़ने का ही परिणाम यह निकला कि छत्तीसगढ़ देश में न केवल सरप्लस बिजली वाला राज्य है बल्कि बिजली प्रदेश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। टाटा और एनएमडीसी के स्टील प्लांट लगने से विकास में क्षेत्रीय संतुलन बराबर होगा। साथ ही लोगों को रोजगार के अवसर भी मिलेंगे।

इतना ही नहीं जिस दिन देवभोग के किम्बरलाइट पाइपों से हीरे का उत्खनन शुरू होगा, उस दिन राज्य की तस्वीर कुछ और नजर आएगी। राज्य की अर्थव्यवथा में हीरे की चमक साफ दिखेगी। जाहिर है, राज्य की ताकत और बढ़ेगी।

छत्तीसगढ़ का सफर :अपनी ताकत को आगे कर राज्य ने बढ़ाया कदम

वंबर 2000 को छत्तीसगढ़ की स्थापना के साथ ही राज्य के लोगों में गर्व की अनुभूति हुई कि अब अपना राज्य बन गया है। मंत्री से लेकर लिपिक और उद्योगपति से लेकर आम व्यवसायी सबका अपने राज्य से जुड़ाव बढ़ना स्वाभाविक था।

यही वजह है कि राज्य निर्माण के साथ जो सबसे पहला काम किया गया वह था-राज्य की ताकत को पहचानने का। जिनके कंधों पर राज्य को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने मध्यप्रदेश पर आश्रित रहने के बजाय अपनी ताकत के बल पर आगे बढ़ने की ठानी।

राज्य की सबसे बड़ी ताकत थी-बिजली। जितनी बिजली राज्य में उत्पादित हो रही थी, उसका ज्यादातर हिस्सा मध्यप्रदेश को जा रहा था। राज्य निर्माण के बाद तत्कालीन अजीत जोगी सरकार ने काफी विवादास्पद परिस्थितियों में छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत मंडल के गठन का निर्णय लिया।

हालांकि इस निर्णय को मध्यप्रदेश सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाया लेकिन फिर भी छत्तीसगढ़ सरकार ने कदम पीछे नहीं खींचे। यही वजह है कि राज्य अपने प्रारंभिक दिनों से ही सरप्लस बिजली वाला राज्य बना हुआ है।

बिजली ने राज्य को साहस दिया और इसी का परिणाम है कि छत्तीसगढ़ ने औद्योगिक विकास में तेजी पकड़ ली। राज्य निर्माण के समय जहां यहां पर केवल दर्जनभर स्पंज आयरन संयंत्र थे, वहीं आज 100 से अधिक संयंत्र काम कर रहे हैं।

800 करोड़ रुपए का केंद्रीय उत्पाद शुल्क बढ़कर 2400 करोड़ रुपए का हो गया है। जाहिर है बाहर के निवेशकों को राज्य में फायदा दिखा। राज्य में कोयला और लौह अयस्क के अलावा उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी है।

औद्योगिक विकास के साथ ही रोजगार के अवसर सृजित हुए। 44 प्रतिशत वनों से आच्छादित राज्य की अर्थव्यवस्था में खेती महत्वपूर्ण आधार है। खेती पर ध्यान फोकस कर राज्य की तरक्की की दिशा तय की गई। परिणाम साफ दिखा-58 लाख टन की सालाना पैदावार बढ़कर 80 लाख टन तक जा पहुंची।

ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ हर मामले में मजबूत था। इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में काफी कम काम हुए। अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ ने लगातार उपेक्षा के दंश झेले हैं। सड़क हो या स्कूल भवन या फिर अन्य विकास मूलक काम।

छत्तीसगढ़ के साथ सौतेला व्यवहार होता रहा। इन कमियों पर स्वाभाविक रूप से ध्यान गया। सड़कों का जाल बिछाने का काम हाथ में लेने के अलावा बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए योजनाएं बनाई गईं। उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो समूचे छत्तीसगढ़ में मात्र 72 हजार सिंचाई पंप के कनेक्शन हुआ करते थे।

इससे अधिक तो मध्यप्रदेश के किसी भी एक जिले में पंप थे। बाद में इसके लिए विशेष अभियान चलाया गया। खासकर रमन सरकार के आने के बाद सिंचाई पंप कनेक्शन बढ़े और आज 2 लाख 30 हजार से अधिक सिंचाई पंप कनेक्शन राज्य में हैं।

सभी क्षेत्रों में किए गए कामों का ही परिणाम है कि राज्य में प्रति व्यक्ति आय 11 हजार रुपए से बढ़कर 38 हजार रुपए तक जा पहुंची और राज्य का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर देश में सर्वश्रेष्ठ हो गई है।

राज्य ने गुजरात को भी पीछे छोड़ते हुए जीडीपी ग्रोथ की दर 11.49 प्रतिशत हासिल की है। यह परिणाम निश्चित तौर पर राज्य की ताकत को पहचानने से मिली। सही दिशा में कदम बढ़े और बढ़ते चले गए।

छत्तीसगढ़ का सफर :40 दिनों में जिला मुख्यालय राजधानी तब्दील

ध्यप्रदेश के रायपुर जिले के मुख्यालय को छत्तीसगढ़ की राजधानी में तब्दील करना एक बड़ी चुनौती थी और इसे मात्र 40 दिनों में पाने का असाध्य सा लक्ष्य। अस्पताल भवन को मंत्रालय और सर्किट हाउस को राजभवन में बदलने के लिए दिन और रात काम करना पड़ा।

राज्य निर्माण की तारीख बदली नहीं जा सकती थी और समय कम था। न प्रशासनिक मुख्यालय यहां था और न ही कोई ऐसा व्यक्ति था जो सारी जिम्मेदारियों को अपने हाथ में लेकर नई राजधानी को आकार दे सके।

पहले तो जिला मुख्यालय और केंद्र सरकार के ओएसडी के जरिए इस प्रक्रिया को अंजाम देने का प्रयास किया गया लेकिन इससे बात बनी नहीं। उसके बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय के हस्तक्षेप के बाद रायपुर में कलेक्टर रह चुके आईएएस अफसर एमके राउत को राजधानी परियोजना प्रशासक बनाकर यहां पदस्थ किया गया। फिर शुरू हुई राजधानी को आकार देने की प्रक्रिया।

यह संयोग ही था कि रायपुर में उस समय कई भवन खाली पड़े थे या कई की उपयोगिता अपेक्षाकृत कम थी। डीके अस्पताल जेल रोड स्थित आंबेडकर भवन में शिफ्ट हो गया था, सो मध्यप्रदेश के वल्लभ भवन के छोटे रूप में डीके भवन को मंत्रालय का रूप दिया गया।

राजभवन के लिए बिल्डिंग तैयार करना बड़ा काम था। कोई भवन इसके लिए अफसरों को सूझ नहीं रहा था। केंद्र सरकार के ओएसडी ने मार्निग वाक के दौरान फैसला ले लिया कि सर्किट हाउस को राजभवन में तब्दील कर दिया जाए। इस तरह छत्तीसगढ़ का राजभवन तैयार हो गया। फिर समस्या आई विधानसभा का भवन कैसे तैयार करें।

बलौदाबाजार रोड पर राजीव गांधी जलग्रहण मिशन का भवन बनकर तैयार था। जलग्रहण मिशन का एशिया का सबसे बड़ा आफिस यहां से चले जाने का दुख छत्तीसगढ़ को झेलना पड़ा, लेकिन उसके स्थान पर राज्य की गौरवशाली विधानसभा खड़ी हो गई।

बीएड कॉलेज को बीटीआई बिल्डिंग में भेजकर पुलिस मुख्यालय बनाया गया। समस्या यहीं खत्म नहीं हो रही थी। विधायकों के लिए आवास और मंत्रियों के बंगले तैयार करना भी बड़ा काम था। मंत्रियों को बंगला देना था, साथ ही मुख्य सचिव से लेकर निचले स्तर के अफसरों को बंगले चाहिए थे। इसके लिए कई अफसरों को बंगलों से बेदखल कर छोटे मकानों में भेजा गया।

सिंचाई विभाग के गेस्ट हाउस को मुख्यमंत्री निवास बनाया गया लेकिन यह पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी को पसंद नहीं आया। 68 लाख रुपए खर्च कर बनाए गए भवन को रिजेक्ट कर दिया गया। बाद में सिविल लाइंस के कलेक्टर बंगले को मुख्यमंत्री निवास का रूप दिया गया।

रायपुर विकास प्राधिकरण ने आम लोगांे को बेचने के लिए पंकज विक्रम अपार्टमेंट तैयार किया था। खुशकिस्मती से यह कांप्लेक्स खाली था। इसे ही विधायक विश्राम गृह बनाया गया। भोपाल से रायपुर आने वाले 2500 कर्मचारियों को मकान देना भी चुनौतीपूर्ण काम था।

काशीराम नगर में कमजोर वर्ग के लोगों के लिए आरडीए द्वारा बनाए गए मकानों को कर्मचारियों को देने का निर्णय पहले तो किसी को रास नहीं आ रहा था लेकिन बाद में मजबूरी में इन्हीं वे एडजस्ट हुए। हालांकि इसमें कम तकलीफ नहीं थी।

लिहाजा 1 नवंबर को राज्य की स्थापना के बाद भी यह प्रक्रिया जारी रही। अफसरों के लिए मेडिकल कॉलेज कालोनी की खाली पड़ी जमीन में आईएएस कालोनी विकसित की गई और मंत्रालय अन्य बंगलों को अफसरों और मंत्रियों के लिए तैयार करने का काम लगातार जारी रहा लेकिन रायपुर शहर ने अपने आप में एक राजधानी को समाहित कर लिया।

धूल उड़ाती सड़कों के स्थान पर चिकनी सड़कें तैयार होने लगीं और धीरे-धीरे रायपुर के यातायात की तरह राजधानी आगे खिसकती रही।

छत्तीसगढ़ का सफर : सिंहासन बत्तीसी के साथ अस्तित्व में आया छत्तीसगढ़

न 2000 में अक्टूबर और नवंबर का महीना नए राज्य के सृजन का गवाह है। नए राज्य में सत्ता हथियाने और उसके करीब आने के लिए चली गई राजनीतिक चालों ने राज्य का इतिहास लिख दिया।
जोड़-तोड़, उठापटक और विरोध की उत्कंठा के बीच 31 अक्टूबर की रात 12 बजे साथ भारत के गणतंत्र में छत्तीसगढ़ को अलग पहचान मिल गई और सिंहासन बत्तीसी के खेल के बीच छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री ने शपथ ली। राज्य नया जरूर था पर राजनीति की कमान पुराने दिग्गजों के हाथों में थी।

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के शुरुआती दिन काफी हंगामेदार और उतार चढ़ाव वाले रहे। खासकर राजनीतिक ड्रामा चरम पर रहा। राज्य का निर्माण किया भाजपा की अटल सरकार ने, लेकिन मध्यप्रदेश से अलग होने वाले छत्तीसगढ़ के 90 विधायकों में संख्या बल के आधार पर सरकार गठन की बारी आई तो कांग्रेस को मौका मिला।

इसी के साथ बिछ गई थी राजनीति की बिसात। कांग्रेस का हर दिग्गज मुख्यमंत्री पद का दावेदार था। बस्तर के तेजतर्रार नेता महेंद्र कर्मा ने आदिवासी विधायकों को लेकर आदिवासी एक्सप्रेस चला रखी थी। उनके साथ 17 से 18 विधायक थे। पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल करीब 12 विधायकों के साथ सरकार बनाने की जुगत में लगे हुए थे।

दूसरी ओर अजीत जोगी जिनके पास विधायकों का समर्थन तो मात्र दो लोगों का था, लेकिन पार्टी हाईकमान से नजदीकियों के चलते प्रभावशाली बने हुए थे। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल चार विधायकों के साथ अपनी ताल ठोंक रहे थे।

सबके निशाने पर थी सीएम की कुर्सी।कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अजीत जोगी का नाम तय कर मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को पर्यवेक्षक बनाकर भेजा तो राजनीति के खेल में एक मुख्यमंत्री की लाचारी भी सामने आई। दिग्विजय सिंह मंत्रिमंडल के तमाम सदस्यों और विधायकों पर दिग्विजय सिंह का जबर्दस्त प्रभाव था।

बावजूद इसके वे अपनी मर्जी से नाम तय नहीं करवा सके। उन्हें हाईकमान ने उस व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनवाने के लिए भेजा जो उनका कट्टर राजनीतिक दुश्मन था। अजीत जोगी हीरा खदानों के मामले में दिग्गी सरकार का जोरदार विरोध कर रहे थे। विवाद इस कदर था कि दोनों के बीच खुलकर शब्दबाण चल रहे थे। बावजूद इसके राजनीतिक मजबूरी का लबादा ओढ़े दिग्विजय सिंह ने विधायक दल की बैठक में अजीत जोगी का नाम रखा।

पार्टी हाईकमान के फरमान को बाकी विधायकों ने तो स्वीकार कर लिया लेकिन विद्याचरण शुक्ल के समर्थक नौ विधायकों ने मंजूर नहीं किया। उन्होंने बगावत कर दी और राज्यपाल को विधायकों के समर्थन की चिट्ठी भेजी गई तो उसमें नौ विधायकांे का समर्थन नहीं था।

वीवीआईपी गेस्ट हाउस पहुना में भीतर मुख्यमंत्री चयन के लिए बैठक चल रही थी और बाहर वीसी समर्थक कांग्रेस नेताओं का हुजूम विरोध प्रदर्शन कर रहा था। हालात संभालने में पुलिस को भी मुश्किल हो रही थी। इसी क्रम मे वह घटना भी हो गई जो शायद छत्तीसगढ़ के इतिहास के साथ हमेशा के लिए जुड़ गई है।

नाराज विद्याचरण शुक्ल को मनाने के लिए दिग्विजय सिंह फार्म हाउस पहुंचे तो उन्हें विद्याचरण शुक्ल के समर्थकों ने घेर लिया और उनकी पिटाई कर दी। धक्का मुक्की में श्री सिंह का कुर्ता फट गया ।

किसी राज्य के मुख्यमंत्री को इस तरह अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं का गुस्सा झेलने की संभवत: यह अपने आप में अनूठी घटना थी। वीसी समर्थकों का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा था। बाद में यही गुस्सा राज्य में एनसीपी का उदय कर गया।

इसके मूल को समझा जाए तो यह कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के शांत आंदोलन को राज्य निर्माण के अंतिम साल में विद्याचरण शुक्ल ने ही मुखर स्वर दिया।उनके समर्थकों को ऐसा महसूस हो रहा था कि मुख्यमंत्री पद की स्वाभाविक दावेदारी शुक्ल की ही है।

लिहाजा दो विधायकों का समर्थन रखने वाले अजीत जोगी छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बन गए। उनका शपथ ग्रहण भी कम रोमांचकारी नहीं था। शपथग्रहण शुरू होने के थोड़ी देर पहले तक कांग्रेस के बागी शुक्ल समर्थक विधायक और भाजपा नेताओं के बीच अलग ही खिचड़ी पक रही थी।

राजनीति की हाईप्रोफाइल चालों ने ऐसा सीन क्रिएट कर दिया था कि जोगी मुख्यमंत्री बनने पर ही संदेह उत्पन्न हो गया था। 31 अक्टूबर की रात 12 बजे के एक घंटे पहले तक कश्मकश जारी रही। वीसी समर्थकों के साथ मिलकर भाजपा सरकार बनाने की कोशिशों मंे थी। लेकिन इस खेल में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री और वीसी के घोर विरोधी रमेश बैस शामिल नहीं थे।

वे नहीं चाहते थे कि विद्याचरण शुक्ल सीएम बनें। उन्होंने जोगी के मुख्यमंत्री बनने और उनको शपथ दिलाने में अप्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। खैर जोगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी विरोध जारी रहा। उनके मंत्रिमंडल के सदस्य महेंद्र कर्मा से उनकी दूरी बनी रही। जोगी ने बाद में राज्य में अपनी जड़ें गहरी करनी शुरू कर दीं।

कांग्रेस विधायकों की बगावत को कुंद करने के लिए उन्होंने भाजपा के 12 विधायकों को दलबदल कराकर अपनी सरकार के पैर मजबूती से जमा लिए। वैसे इस सफर में भाजपा की अंदरुनी राजनीति का भी एक हिस्सा गौर करने लायक है। नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाए जाने से बृजमोहन अग्रवाल के समर्थक नाराज हो गए थे और उन्होंने भाजपा कार्यालय में तोड़फोड़ कर तीन वाहनों को आग के हवाले कर दिया था।

छत्तीसगढ़ का सफर:तारीख बन गई अटलजी की ‘वो’ हुंकार

पृथक राज्य की मांग को केंद्र में रखकर आचार्य नरेंद्र दुबे ने 1965 में ‘छत्तीसगढ़ समाज’ की स्थापना की। इसके करीब दो साल बाद यानी 1967 में डॉ. खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढ़ी महासभा को विसर्जित कर ‘छत्तीसगढ़ी भ्रातृ संघ’ बनाया और राज्य की मांग को पुनर्जीवित किया लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्नद्रष्टा के रूप में प्रतिष्ठित डॉ. बघेल का 1969 में निधन हो गया।

इसके बाद संत कवि पवन दीवान छत्तीसगढ़ में एक नए नक्षत्र के रूप में उभरे।जुलाई 1969 में पवन दीवान की अध्यक्षता में ‘छत्तीसगढ़ राज्य समिति’ का गठन हुआ। राज्य निर्माण के लिए कोई बड़ा आंदोलन तो उस दौरान नहीं हुआ पर गतिविधियां बनी रही। आदिवासी नेता लालश्याम शाह, मदन तिवारी, डॉ. पाटणकर, वासुदेव देशमुख आदि कई नेता सक्रिय रहे।

आपातकाल के बाद 1977 में फिर एक उबाल आया लेकिन तमाम छत्तीसगढ़ हितैषी और कांग्रेस विरोधी नेता जपा लहर में ‘राजनेता’ बन गए। पुरुषोत्तम कौशिक, बृजलाल वर्मा केंद्र में मंत्री बने तो पवन दीवान राज्य में। छत्तीसगढ़ राज्य की मांग हाशिए में चली गई। छिटपुट आवाजें उठती रही, नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह।

मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व काल में छपसा ने जरूर उन्हें ज्ञापन सौंपा और राज्य की मांग को जीवित रखा था। केंद्र और प्रदेश की राजनीति में ‘शुक्ल परिवार’ का शुरू से दबदबा रहा लेकिन पृथक छत्तीसगढ़ में इस परिवार की दिलचस्पी नहीं थी।

राज्य निर्माण के अंतिम दिनों में करीब साल सवा साल पहले विद्याचरण शुक्ल जरूर इस आंदोलन में शामिल हुए तब लगभग निर्णायक स्थिति बन चुकी थी। यह निर्णायक स्थिति (1990-2000) दशक के दौरान ही बनी। इसकी शुरुआत भाजपा नेता डॉ. केशव सिंह ठाकुर ने की। उन्होंने राज्य निर्माण को पार्टी में मुद्दा बनाया।

भाजपा के वरिष्ठ नेता उनसे नाराज हो गए। उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण मंच’ का गठन किया। उसी दौरान तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी को पृथक राज्य के लिए ज्ञापन सौंपा गया। यह ज्ञापन गिरफ्तारी से बचने के लिए उड़ीसा सीमा में दिया गया।

इसमें हरि ठाकुर ने अहम भूमिका निभाई। इसके बाद उन्हीं की अगुवाई में सर्वदलीय मंच बना और सभी दलों से अपील की गई अगले चुनाव (1993) में छत्तीसगढ़ राज्य के मुद्दे को घोषणा पत्र में शामिल किया जाए। इसका जबरदस्त असर हुआ। मजबूरी में ही सही कांग्रेस-भाजपा ने भी इस मांग को घोषणा पत्र में जगह दी लेकिन पार्टी नेता ढुलमुल रवैया अपनाए रहे।

सर्वदलीय मंच के बैनर तले वरिष्ठ कांग्रेस नेता चंदूलाल चंद्राकर अपने जीवन के अंतिम दिनों में बेहद सक्रिय रहे। 5 अक्टूबर 1993 को छत्तीसगढ़ महाबंद का ऐलान किया गया था, जिसे अभूतपूर्व और ऐतिहासिक सफलता मिली।

राज्य की मांग जन आंदोलन का रूप ले चुकी थी। राजनीतिक दलों में बेचैनी बढ़ती जा रही थी। इस आंदोलन में छत्तीसगढ़ समाज पार्टी और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता। 2 जनवरी 1995 को रायपुर में सर्वदलीय मंच की जबरदस्त रैली निकली जिसमें छत्तीसगढ़ के 7 सांसद, 23 विधायक और दो मंत्री शामिल हुए।

चंदूलाल चंद्राकर के निधन के पश्चात मंच बिखर सा गया लेकिन तब तक राज्य की मांग राजनीतिक दलों के लिए अनिवार्यता बन चुकी थी। हालांकि आंदोलन में शिथिलता आ रही थी। तभी राजनीतिक पराभव के दिनों में सभी संभावनाओं को समेटकर विद्याचरण शुक्ल इस आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने राज्य संघर्ष मोर्चा का गठन किया।

उनके आंदोलन का असर दिल्ली तक होने लगा। इन्हीं कारणों से चुनाव (98-99) के दौरान भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने रायपुर की सभा (सप्रेशाला मैदान) में बुलंद आवाज में जनता से वादा किया था ‘आप मुझे 11 सासद दो मैं छत्तीसगढ़ दूंगा’। और कुछ समय बाद .. वह घड़ी आ गई.. जब सपना साकार हुआ।

अटल की वो हुंकार यादगार तारीख बन गई। केंद्र में अटल सरकार बनी। लगभग एक साल बाद यानी 31 जुलाई 2000 को लोकसभा में और 9 अगस्त को राज्य सभा में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के प्रस्ताव पर मुहर लगी। 4 सितंबर 2000 को भारत सरकार के राजपत्र में प्रकाशन के बाद 1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ देश के 26वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया और पुरखों का सपना साकार हुआ।

छत्तीसगढ़ का सफर :80 साल पहले फूटी थी पहली चिंगारी

त्तीसगढ़ की संघर्ष यात्रा करीब सौ साल पुरानी है। राज्य के लिए पहला सपना किसने कब देखा यह कहना मुमकिन नहीं, लेकिन एक बात जरूर भरोसे से कही जा सकती है कि छत्तीसगढ़ की लड़ाई अस्मिता और स्वाभिमान की लड़ाई थी।


इसका बीजारोपण किया था पं. सुंदरलाल शर्मा और पं. माधवराव सप्रे ने। समय यही कोई सन् 1900 के आसपास का था। यह विशुद्ध रूप से भावनात्मक मुद्दा था, जिसे राजनीतिक होने में सौ साल लगे। तब जाकर साकार हुआ पुरखों का सपना। अब उड़ने के लिए सारा आकाश है।

एक नवंबर को राज्य स्थापना की 10वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में बीते कल पर दैनिक भास्कर की एक निगाह..

इस बात की जानकारी बहुत कम लोगों को है कि छत्तीसगढ़ को पृथक पहचान से लेकर अलग राज्य बनने में करीब 300 साल लगे। इस मान्यता को लेकर इतिहासकारों में मतभिन्नता हो सकती है, पर ज्ञात तथ्यों के अनुसार सन् 1700 के आसपास ‘छत्तीसगढ़’ शब्द अस्तित्व और चलन में आया।

उसी कालखंड में रतनपुर राज्य के कवि गोपाल मिश्र की कविताओं में छत्तीसगढ़ शब्द का प्रयोग हुआ है। इसके पहले किसी अभिलेख में छत्तीसगढ़ का उल्लेख नहीं मिलता। यह क्षेत्र इतिहास के पन्नों और पौराणिक ग्रंथों में दंडकारण्य, कोसल, दक्षिण कोसल, महाकोसल, महाकांतार या फिर गोंडवाना क्षेत्र आदि के नामों से संबोधित या चिह्न्ति होते रहा है।

मोटे तौर पर माना यही जाता है कि मराठों के शासनकाल के दौरान इस इलाके को ‘छत्तीसगढ़’ के रूप में जाना-पहचाना गया या यह कहें कि इसे इसी नाम से परिभाषित किया गया। वजह शायद यही रही होगी, तब यहां छोटे-बड़े कई गढ़ थे। इन्हीं गढ़ों के कारण इस इलाके को ‘36गढ़’ नाम दिया गया।

इसमें दो मत नहीं कि यहां की प्राकृतिक सुषमा, सांस्कृतिक ऊर्जा और गुरतुर बोली ने सभी का मन मोहा। संभवत: इसीलिए नाम को विशिष्ट पहचान और महत्ता मिलती गई। मराठों के बाद अंग्रेजों ने भी छत्तीसगढ़ को पृथक भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक इकाई के रूप में स्वीकार किया, लेकिन दर्जा नहीं दिया।

वह दौर एक तरह से नवजागरण काल था। उस काल के विशिष्टजनों ने ‘माटी की गंध’ को दूर-दूर तक पहुंचाया। पं. सुंदरलाल शर्मा और पं. माधवराव सप्रे की भूमिका प्रणम्य है।

ब्रिटिश शासनकाल में यह क्षेत्र ‘सीपी एंड बरार’ स्टेट के अंतर्गत था। कांग्रेस के उदय के करीब तीन दशक बाद रायपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष पं. वामनराव लाखे ने सन् 1922-23 में सबसे पहले नागपुर की बैठक में ‘छत्तीसगढ़ प्रदेश’ की मांग उठाई। कांग्रेस के भीतर उठी यह आवाज दबा दी गई। इस आवाज को दबाने का सिलसिला कांग्रेस में आजादी के बाद भी चलते रहा।

कांग्रेस के चर्चित त्रिपुरी अधिवेशन के पूर्व बिलासपुर में उस काल के दिग्गज नेता पं. सुंदरलाल शर्मा, ठा. प्यारेलाल सिंह, बैरिस्टर छेदीलाल, छबिराम चौबे, गजाधर साव, पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी, ‘विप्र’ आदि की मौजूदगी में बैठक हुई और छत्तीसगढ़ की अस्मिता व पहचान को लेकर चर्चा की गई।

उसी साल रायपुर के आनंद समाज वाचनालय में पं. ज्वाला प्रसाद मिश्र की अध्यक्षता में बैठक हुई, जिसमें ‘छत्तीसगढ़ राज्य’ की भूमिका तैयार की गई। इस बीच 1945 में ठा. प्यारेलाल ने छत्तीसगढ़ शोषण विरोधी मंच की स्थापना कर समाज को जगाने का प्रयास किया। 1947 में आजादी के ठीक पहले कांग्रेस के नेता वीवाई तामस्कर ने एक बार फिर छत्तीसगढ़ राज्य की मांग उठाई पर तवज्जो नहीं मिली।

आजादी के बाद सन् 1951 में इसी मुद्दे को लेकर बैरिस्टर छेदीलाल, ठा. प्यारेलाल, डॉ. खूबचंद बघेल, बुलाकीलाल पुजारी आदि कई नेता कांग्रेस से अलग हो गए। छत्तीसगढ़ का सपना संजोए ठा. प्यारेलाल सिंह दुनिया से विदा हो गए।

उनके पुत्र ठा. रामकृष्ण सिंह ने 30 अक्टूबर 1955 को रायपुर के गिरधर भवन (अब नहीं है) में एक बैठक आहूत की जिसमें कमल नारायण शर्मा, मदन तिवारी, दशरथ लाल चौबे आदि नेताओं ने छत्तीसगढ़ राज्य संबंधी मांग की पुरजोर वकालत की।

ठा. रामकृष्ण सिंह ने इस मांग को सदन में रखा। तब राज्य पुनर्गठन की तैयारियां शुरू हो चुकी थी। उनके प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया। उस जमाने में आदिवासी नेता लालश्याम शाह, बृजलाल वर्मा आदि ने इस प्रस्ताव का जोरदार समर्थन किया था। तब पं. रविशंकर शुक्ल जो मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने, छत्तीसगढ़ राज्य के पक्षधर नहीं थे। हालांकि पं. शुक्ल तब छत्तीसगढ़ (रायपुर) के निवासी थे।

मध्यप्रदेश बनने से पहले राजनांदगांव में प्रतिनिधि सम्मेलन व खुला अधिवेशन हुआ जिसमें डॉ. खबूचंद बघेल ने जोशीला उद्घाटन भाषण दिया और छत्तीसगढ़ राज्य की मांग को एक बार फिर बुलंद आवाज दी। उन्होंने इसके बाद ‘छत्तीसगढ़ी महासभा’ का गठन किया जिसमें दशरथ लाल चौबे सचिव, केयूर भूषण और हरि ठाकुर संयुक्त सचिव बनाए गए।

साथ ही उप समिति बनाकर कलाकारों, साहित्यकारों को भी उसमें शामिल किया गया। तब तक छत्तीसगढ़ राज्य के लिए व्यापक जनाधार तैयार हो चुका था परंतु कांग्रेस इसके पक्ष में नहीं थी।